Monday, March 15, 2010

विकास की खातिर घटाए घाटा

मित्रों पिछले दिनों मैने लोकप्रिय हिन्दी दैनिक नईदुनिया के इंदौर सहित मध्य देश-छत्तीसगढ़ और नई दिल्ली एनसीआर एडिशन के लिए प्री-बजट न्यूज सीरिज लिखी थी। विलंब के लिए खेद, किंतु अब मैं अपने ब्लग पर अपलोड कर रहा है। आशा करता हूँ कि मेरे द्वारा उठाए मुद्दे आपको पसंद आएगे

सुनिए वित्तमंत्रीजी
प्री बजट न्यूज सीरिज 3
वित्तीय घाटा जीडीपी के 6.8 तिशत के रिकार्ड स्तर पर पहुँचाना
सरकार का खर्च विकास कार्यों की तुलना में ब्याज अदायगी में ज्यादा बढ़ा
रुपया आय में से सबसे ज्यादा 20 पैसा ब्याज अदा करने में हो रहा है खर्च
फिजूल खर्ची खत्म कर सरकार घटा सकती है राजकोषीय

मनीष उपाध्याय
इंदौर । नास्तिक दर्शक को मानने वाले आचार्य चार्वाक का कहना था 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्" (ऋण लो और घी पीयो)। लगता है कें सरकार भी इसी दर्शन को अपना रही है। 2009-10 के बजट में देश का राजकोषीय घाटा (फिस्क डिफिसीट) जीडीपी के ६ दशमलव 8 प्रतिशत के रिकार्ड स्तर पर पहुँच जाने का अनुमान गाया है। इस आँकड़ें का आशय यह होता है कि देश पर कर्ज के लिए ब्याज चुकाने की राशि बढ़ती जा रही है। इसकी सबसे बड़ी कीमत देश के आर्थिक-सामाजिक विकास में पिछड़ने के रुप में चुकाना पड़ सकती है। उम्मीद की जाए की सरकार तेजी से आर्थिक गति की ओर जाते चीन और अन्य देशों के साथ दौड़ में बने रहने के लिए काल के गाल की तरह बढ़ते राजकोषिय घाटे को खत्म करने के लिए गुड गवर्नेंस जैसे ठोस उपाय करेगी।
जुलई में अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और बाद में अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहनसिंह खुद भी राजकोषिय घाटे का जीडीपी की तुलना में ऐतिहासिक स्तर 6.8 प्रतिशत (करीब 4 लाख करोड़ रु.) तक पहुँच जाने पर गहरी चिंता व्यक्त की थी। अब यह चिंता देश के विकास को खाने लगी है।
क्या आशय है फिस्क डिफिस्टि से
फिस्क डिफिसीट का बढ़ना याने सरकार पर कर्ज के पेटे ब्याज अदायगी की राशि का बढ़ना है। अर्थशास्त्र का सामान्य सिद्धांत है आय की तुलना में कर्ज का बढ़ना याने दिवालिया या होने की ओर बढ़ना या विकास के विपरीत जाना। पिछले बजट के अनुसार देखा जाए तो सरकार को होने वाली एक रुपया आय में से सबसे ज्यादा 20 पैसे ब्याज की अदायगी में खर्च करना पड़ रहा है।
क्या है दुष्परिणाम
देश की आय का बड़ा हिस्सा यदि कर्ज को पाटने में चला जाएगा तो विकास के लिए सरकार के पास कम पैसा बचेगा। एक अनुमान के अनुसार देश के बुनियादी क्षेत्र-सड़क, बिजली, दूरसंचार, पेयजल आदि के विकास के लिए अरबों रु। की आवश्यकता है। विकासोन्मुखी वैश्विक अर्थव्यवस्था में पिछड़ने का बड़ा खतरा लगने लगा है।
कर्ज का दलदल
1। सरकार कर्ज को पाटने के लिए नए कर्ज ले सकती है, लेकिन इससे नुकसान यहीं है कि राजकोषीय घाटा और बढ़ता चला जाएगा और देश कर्ज के मकड़ जाल में फंस जाएगा। इसलिए यह उपाय भी कारगार नहीं है।
2। नए नोट छाप कर सरकार कर्ज को पाट सकती है, लेकिन इसमें नुकसान यह है कि महँगाई बढ़ने का खतरा अधिक है, जो कोई भी लोकतांत्रिक सरकार नहीं कर सकती है।
क्या हो उपाय
1। सरकार गैर बजट आवंटन वाले, फालतू खर्चों, अनुत्पादक खर्चों को घटाए। अर्थात कास्ट ऑफ गवर्नेंस घटाए। केंद्र सरकार ने इसी सिलसिले में गत दिनों मंत्रियों के गैरजरुरी विदेशी यात्राओं और महंगी होटलों में ठहरें पर प्रतिबंध गाया था। किंतु लक्जरी और पाँच सितारा सुविधाओं में रहने के आदी हो चुके कथित जनसेवकों को यह उपाय सिर्फ 4 दिन में ही भारी लगने लगते है। इस तरह जनता के कर का पैसा अनुत्पादक कार्यों में खर्च भी हो जाते है और देश कर्ज के बोझ में दबा ही रहता है।
2। देश को कर्ज से बचाने के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री पी। चिदंबरम द्वारा शुरू किए गए तथा मौजूदा समय में अधिक प्रसंगिक 'वित्तीय सुधार एवं बजट बंधन" (एफआरबीएम) उपायों को सख्ती से लागू किया जाए।
उम्मीदों का बजट
वित्त मंत्रीजी से उम्मीद की जाए कि गाँधीजी के कथित अनुयायी सही अर्थों में सादगी के साथ रहकर सरकारी फिजू खर्ची को रोकने के और सख्त कदम उठाएँगें तथा देश का पैसा कर्जों के बद े ब्याज चुकाने में जाने के बजाए देश के विकास में गे।

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